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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013
बुधवार, 27 फ़रवरी 2013
धान की कहानी:लोक कथा
प्रिय मित्रों आज आप लोगो के सामने एक भोजपुरी लोक कथा प्रस्तुत कर रहा हूँ,कृपया इसे निजी तौर पर न लें।
बहुत पहले खेतों में चावल बोया जाता था और चावल ही काटा जाता
था। सोचिये , कितना अच्छा था वह समय, जब ना धान पीटना पड़ता था और ना ही
चावल के लिए उसकी कुटाई ही करनी पड़ती थी। खेत में चावल बो दिया और जब चावल पक गया
तो काटकर, पीटकर उसे देहरी (अनाज रखने का मिट्टी का पात्र) में रख दिया।
तो आइए कहानी शुरु करते हैं; चावल से धान बनने की।
एक बार
ब्राह्मण टोला के ब्राह्मणों को एक दूर गाँव से भोज के लिए निमंत्रण
आया। ब्राह्मण लोग बहुत प्रसन्न हुए और जल्दी-जल्दी दौड़-भागकर उस गाँव में पहुँच
गए। हाँ तो यहाँ आप पूछ सकते हैं कि दौड़-भागकर क्यों गए। अरे भाई साहब, अगर
भोजन समाप्त हो गया तो और वैसे भी यह कहावत ‘एक बोलावे चौदह धावे’ ब्राह्मण
की भोजन-प्रियता के लिए ही सृजित की गई थी (है)। बिना घुमाव-फिराव के सीधी बात पर
आते हैं। वहाँ ब्राह्मणों ने जमकर भोजन का आनन्द उठाया। पेट फाड़कर खाया, टूटे थे
जो कई महीनों के। भोजन करने के बाद ब्राह्मण लोग अपने घर की ओर प्रस्थान किए।
पैदल
चले,डाड़-मेड़ से होकर क्योंकि सवारी तो थी नहीं। रास्ते में चावल
के खेत लहलहा रहे थे। ब्राह्मण देवों ने आव देखा ना ताव और टूट पड़े चावल पर। हाथ
से चावल सुरुकते (बाल से अलग करते) और मुँह में डाल लेते। उसी रास्ते से शिव व
पार्वती भी जा रहे थे । यह दानवपना (ब्राह्मणपना) माँ पार्वती से देखा नहीं गया और
उन्होंने शिवजी से कहा, ”देखिए न, ये ब्राह्मण लोग भोज खाकर आ रहे हैं फिर भी कच्चे चावल चबा रहे
हैं।” शिवजी ने माँ पार्वती की बात अनसुनी कर दी। माँ पार्वती ने
सोचा, मैं ही कुछ करती हूँ और सोच-विचार के बाद उन्होंने शाप दिया कि
चावल के ऊपर छिलका हो जाए।
तभी
से खेतों में चावल नहीं धान उगने लगे। धन्य हे ब्राह्मण देवता।
मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013
दूरियाँ
पिघलती बर्फ
पर चलना
जितना मुश्किल है,
उससे अधिक मुश्किल है
तुम्हारी आँखों को पढ़ना।
सारे शब्द
जंगल के वृक्षों पर
मृत सर्पों की तरह लटके हैं
क्योंकि ये तुम तक किसी तरह
पहुँच नहीं सकते
और जो मुझ तक
पहुँचते हैं
वे सिर्फ दस्तक देते हैं
द्वार खुलने की प्रतीक्षा नहीं करते।
******************जितना मुश्किल है,
उससे अधिक मुश्किल है
तुम्हारी आँखों को पढ़ना।
सारे शब्द
जंगल के वृक्षों पर
मृत सर्पों की तरह लटके हैं
क्योंकि ये तुम तक किसी तरह
पहुँच नहीं सकते
और जो मुझ तक
पहुँचते हैं
वे सिर्फ दस्तक देते हैं
द्वार खुलने की प्रतीक्षा नहीं करते।
माना की प्यार मेरा इक धोखा है ...
कुछ धोखे भी बहुत हसीन हुआ करते है। (आभार-कालांतर)
शनिवार, 23 फ़रवरी 2013
गुरुवार, 21 फ़रवरी 2013
घायल दिल: हाइकू
१
आँखों में आँखें
दिलों की धडकने
इकरार की
२
उनकी यादें
करती परेशान
यहीं दस्तूर
३
प्यार का वादा
हरपल दिलों में
निभाया कहाँ
४
दर्द की हद
दिल की आईने में
झलकती है
५
लहू से आँसूं
तुम्हारी वेवफाई
भुलाया कहाँ
६
घायल दिल
राहों के मुसाफिर
भटकते हैं
७
वफा दिखाया
एक छलावा था
रुलाते रहे
बुधवार, 20 फ़रवरी 2013
तकदीर के मारे
तूफां से डरकर लहरों के बीच सकारे कहाँ जाएँ,
इस जहाँ में भटककर तकदीर के मारे कहाँ जाएँ ।
अब तो खिंजा भी गुल खिलाने लगे है,
अपनी बेबसी को लेकर बहारें कहाँ जाएँ।
उम्मीदे थी जिसकी चाहत का ...........हमेशा,
हम तुमसे छुड़ाकर दामन बेसहारे कहाँ जाएँ।
उजाला हैं जहाँ में ऐ चाँद तेरी चांदनी से,
बता फलक के अभागे सितारे कहाँ जाएँ।
नाम था लबों पे खुद के बाद तुम्हारा ऐ हंसी,
तुम्हारे नाम का वो जहां के लुटेरे कहाँ जाएँ।
हंसी मंजर था चाहत के लम्हे गुजरा था ऐ "राज"
सिसक-सिसक कर वो रंगीन नजारें कहाँ जाएँ।
जब नाव जल में छोड़ दी तूफ़ान में ही मोड़ दी,
दे दी चुनौती सिन्धु को तो धार क्या मझधार क्या !
(सादर आभार)
सोमवार, 18 फ़रवरी 2013
"एक कली"
जो कर रही थी इंतजार
पल पल क्षण क्षण
अपने खिल जाने का
अपने मुस्कराने का
अपनी खुशबु सिमटने का
आखिर वह दिन आ ही गया
कली अधखिली और
आगे खिलने लगी
मंद मंद पवन के साथ
झूम कर खिलखिलाने लगी
फैला खुशबु उपवन में
भौरे करने लगे गुंजन
कोयल भी प्रेमगीत गाने लगी।
कोयल भी प्रेमगीत गाने लगी।
"अक्स खुशबु हूँ बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई"
(आभार )
और बिखर जाऊं तो मुझको न समेटे कोई"
(आभार )
शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013
"माँ सरस्वती वन्दना"
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥1॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्॥2॥
हे माँ वीणावादिनी
करते है अभिनन्दन
सातों सुरों की जन्मदात्री
दिन करते करते है
तुम्हारी सुमिरन।
हर जगह व्याप्त
माया है आपकी,
दुखियों के सर पर
छाया है आपकी।
हंस की सवारी
पुस्तक लिए हाथों में
हर पल चाहत है
दर्शन हो आपके।
आप विद्या की देवी
करुणा के सागर,
करें प्रसार दुनिया में
सत्य बौद्धिक ज्ञान,
मैं मूढ़ अज्ञानी
नही कर सकता
आपके गुणों का बखान।
गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013
फूल
ढेर सरे फूलों के बीज लेकर आया हूँ
किन्तु
तुम्हारे घर के पत्थरों को देखकर
सोचता हूँ
इन बीजों को क्या करूं
अच्छा होता
मैं इन बीजों के साथ
मुठ्ठी भर मिट्टी भी लाता
और अँजुरी हथेली में ही
हथेली की ऊष्मा तथा तुम्हारी आँखों की नमी से
अँजुरी भर फूल उगाता।
हमने तो हमेशा काँटों को भी नरमी से छुआ है,
लेकिन लोग वेदर्दी हैं फूलों को भी मसल देते।
(आभार डॉ रिपुसूदन जी का)सोमवार, 11 फ़रवरी 2013
दहेज की बलिवेदी
बड़ी मन्नतों के बाद
घर में आयी एक नन्ही सी कली
रूप सलोना चेहरे पर थी मुस्कान
घर आँगन हुआ उपवन
नन्ही किलकारियों से
गुंज उठा घर आँगन
मिला हमेशा लाड दुलार
पाल पोस बनाया फूलों सा
एक दिन बनी किसी के गले की हार
नये घर गयी लक्ष्मी मी तरह
पर किया गया तानों से स्वागत
रूप गुण का न किसी ने किया ख्याल
गाड़ी भर न लायी दहेज
इसका है सबको मलाल
मारपीट,दुत्कार का दिया उपहार
मानवता भूल दानवता पर सब उतरे
दिन पर दिन बीते
कब तक सहती ये अत्याचार
खुनी दांतों के बीच बेचारी
दरिंदो ने कर दिया प्राणों का अंत
दहेज की बलिवेदी पर
एक अबला का हुआ अंत
न जाने कितनी ही बेटियाँ
हर रोज हो रही है बलिदान
क्या हो गया है मानवता का अंत
दहेज प्रथा है एक अभिशाप
खुल कर करे इसका बिरोध।
बुधवार, 6 फ़रवरी 2013
मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013
"क्या हो गए हैं यारों"
हम क्या थे अब क्या हो गए हैं यारों,
भूल अपनी मर्यादा
बेपर्दा हो गए यारों।
अब साये से भी डर
लगने लगा है यारों।चारो तरफ है फैला जुर्म का काला साया,
रौशनी की फ़िक्र करता
नही है अब कोई,
हर तरफ तूफां का आलम
सा है यारों।
लूट-खसोट,अत्याचार
का है बाजार गर्म,
दरवाजे तो है बंद
जाएँ तो किधर यारों।
उठ रहा हर तरफ बेबसी
का धुंआ ही धुआं,
अब तो साँस लेना भी
हो गया दूभर यारों।
तन पर न हो कपड़ा
पावों से ढक लेंगे लाज को,
पर पावों को भी
खिचने वाले हैं बहुत यारों।
रोज ही नए नए मंजर
सामने आने लगे है,
हँसते हँसते ही लोग
चिल्लाने लगे हैं यारों।
देख दुर्दशा देश की
बहुत दूर निकल आयें,
सात समन्दर पार भी
न चैन आया यारों।
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चलते चलते ..........
अब तो घबड़ा के यह कहते है कि मर जायेंगे,
मर कर भी चैन न पाया तो किधर जायेंगे।
शनिवार, 2 फ़रवरी 2013
मत मारो माँ
माँ ,माँ,ओ मेरी माँ तुम सुन रही हो मुझे मैं तो अभी तेरी कोख में हूँ जानती हूँ एहसास है तुझे आज मैंने सुना पापा की बातें उन्हें बेटी नही बेटा चाहिए मैं बेटी हूँ,इसमें मेरा क्या दोष मईया मैं तो तेरा ही अंश तेरे ही जिगर का टुकड़ा तेरे ही दिल की धडकन क्या तुम भी मुझे मरना चाहती हो मुझे मत मरो माँ मुझे जग में आने दो न मैं तेरी बगिया की कली तेरा जीवन महका दूँगीं तेरे सपने सच कर दूँगी जीवन के हर पग पर तेरा साथ न छोडूंगी तेरा दुःख मेरा दुःख होगा माँ समझाना पापा को मैं पापा पर न बनूँगी बोझ पढ़ लिख कर छूऊँगी जीवन के उच्च शिखर को एक दिन करेंगे फक्र मुझपर बनूँगी लक्ष्मी घर की तेरी माँ ओ मेरी प्यारी माँ अजन्मी बेटी तुझे पुकार रही मत करना मुझे मशीनों के हवाले मत मारना मुझे। एक प्रयास,"बेटियां बचाने का"....... |
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